Kahani Suhani : Selected Stories : Second Winner
सोहबत
लेखिका : अनामिका पुरोहित
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“बड़े ओल्ड-फ़ैशंड मालूम होते हैं, आप!”
“जी? आपने मुझ से कुछ कहा?”
“जी हाँ, आप ही हैं न, लेखक चंद्रभान शर्मा, जिनकी नई किताब ‘कहीं, किसी रोज़’ पिछले माह ही लाउंच हुई है?”
“जी, बिलकुल! आपने कैसे जाना? मैं तो बुक-लाउंचेस पर जाता ही नहीं हूँ!”
“वेल, शर्मा साहब, मैं साहित्य पढ़ती हूँ, और पढ़ाती भी हूँ। तो इस फ़ील्ड से वाक़िफ़ियत तो लाज़मी है, नहीं?”
“ओह, तो आपने एक टीचर की हैसियत से मेरी किताब पढ़ी है; तब तो आपको इसमें कई त्रुटियाँ नज़र आई होंगी!”
चन्द्रभान की वह सरल सी टिप्पणी लुबना को बहुत गहरी और गम्भीर लगी।
मुंबई की मशहूर “रीडर काउन्सिल लाइब्रेरी” की लाइफ़्टायम मेम्बर्शिप के अंतर्गत लुबना को कई लेखकों से वार्तालाप करने का अवसर मिलता रहता था, जो उसके शिक्षा प्रदान करने में चार चाँद लगा देता था – लेखक का दृष्टिकोण, उसकी सृजनत्मक सोच आदि को वह सदा ही अपने क्लास-डिस्कशन का हिस्सा बनाती थी। साहित्य के हर रंग, हर रूप को लुबना ने अपनी कक्षाओं में समझा और समझाया था। इसके तहत वह लेखकों से टेढ़े या तीखे प्रश्न करने से भी नहीं झिझकती थी। पर जहाँ अधिकतर लेखक उसके मुँहफट होने को तल्ख़ियत की निशानी समझते, वहीं चन्द्रभान ने उसे हास्य का रंग दिया। शायद यही बात लुबना को कुछ गहरी प्रतीत हुई।
“नहीं, त्रुटियाँ तो नहीं, पर कई विचार थोड़े संकीर्ण, या, यूँ कहें कि थोड़े कन्वेन्शनल मालूम हुए! विशेषत: जो आपने नायिका की तुलना फूलों से की है, वह मुझे काफ़ी परम्परागत लगी। मुझे ग़लत मत समझिए, शर्मा साहब। नायिका का उल्लेख अत्यंत सुंदरता से किया गया है, परंतु यही सुंदरता उसे असलियत या वास्तविकता से कोसों दूर कर देती है, और आजकल की औरतें वस्तविकताओं में रहती हुईं, उनसे झूझती हुईं अपना जीवन व्यतीत करतीं हैं -ऐसा वर्णन हमारी रोज़मर्रा की छोटी-छोटी लड़ाईयों को अनदेखा कर जाता है, या असत्य कर देता है, एंड डैट इज़ वेरी डिसेंपोवेरिंग – बहुत विवाशता का एहसास होता है, मिस्टर शर्मा।””
“सर्वप्रथम तो मैडम, आप मुझे शर्मा साहब न बुलाएँ। लेखक हूँ न, तो इतने आदर से भय-सा महसूस होता है। आप मुझे चन्द्रभान, या सिर्फ़ चंदर कह सकतीं हैं। आपका परिचय?””
“मिस लुबना, प्रफ़ेसर अव इंग्लिश लिटरेचर। मुझे मिस लुबना कहें।””
“जी, मिस लुबना। तो आपकी आलोचना के लिए धन्यवाद। एक पाठक की लेखक से कई प्रकार की अपेक्षाएँ होतीं है; इतनी, जितनी लेखक कभी सोच भी नहीं सकता। और ये सभी आशाएँ अलग-अलग दिशाओं से उसे पुकारती है, डाँटती है, झँझोड़ती हैं, और कचोटती हैं। यह शायद लेखक की नियति है, की जहाँ वह एक दुनिया को निर्मित कर बाँधता है, वहीं किसी दूसरे संसार को ध्वंस भी कर बैठता है – जैसे आज मेरी आशावाद की दुनिया ने आपके यथार्थवाद को गहरी चोट पहुँचाई।””
“यक़ीन जानिए, मिस लुबना, मेरी स्वच्छंदतावादी विचारधारा का यह क़तई अर्थ नहीं कि मैं अपने किरदारों को विवाशता या पॉवर्लेसनेस की ओर धकेल दूँ। सच कहूँ तो, यह आयडीयलिस्टिक सोच मुझे यथार्थ से जूझने का होंसला देती है, उससे निकास पाने, या भाग जाने का नहीं। आइ एम नॉट ऐन इस्केपिस्ट, यू सी!””
“सच कहूँ तो, यदि मैं आपको भी एक किरदार के समान मानू, तो मैं आपमें भी ख़याली, या, अव्यवहारिक पहलुओं को उभारना पसंद करूँगा – जैसे आपके बड़े-बड़े चश्मों से झाँकती अत्यंत भाववाहक आँखें, या आपके अपने ही अंदर झाँक कर धीरे से हँसने का अन्दाज़। मुझे ग़लत मत समझिएगा मिस लुबना; मैं उदाहरण के तौर पर कह रहा हूँ। और रही बात फूलों की, तो उनसे मुझे ख़ास लगाव है; कभी फ़ुरसत में बताऊँगा।””
लुबना को चंदर की बातें अच्छी तो नहीं, पर दिलचस्प अवश्य लगीं; इतनी, कि उसने चंदर से कई बार दोबारा मिलने का फ़ैसला किया। वे अक्सर अल्फ़्रेड पार्क में मोर्निंग-वॉक पर मिला करते। हालाँकि लुबना को दरिया-किनारे सैर करने की आदत थी, पर चंदर से बातचीत अब उसकी कई आदतों के बीच आ चुकी थी। और चूँकि मैं चंदर के समान लेखक नहीं, तो जो हुआ उसकी आप शायद कल्पना कर ही सकते होंगे। पर ज़रा ठहरिए, आप सम्भवत: कुछ अधिक आगे बढ़ गए हों!
तो हुआ ये, कि, मुलाक़ातें दोस्ती में तब्दील हुईं, गहरी दोस्ती। मानसिक जुड़ाव की बात ही कुछ और होती है – यह रिश्ता दोस्ती से कहीं पक्का, और प्रेम कहीं गहरा होता है – परंतु कहीं दोनो के बीच में अटक कर भी रह जाता है। लुबना-चंदर हमनवा तो बने, मगर हमसफ़र नहीं। जीवन की दौड़-भाग दोनो को जितना जल्दी पास लाई थी, उतना ही जल्दी एक-दूसरे से दूर भी ले गई। लेकिन, इंटेलेक्चुअल कम्पैन्यन्शिप की यही तो सबसे बड़ी ख़ूबी है, कि वह निकटता की ग़ुलाम नहीं। जहाँ चंदर के विचारवाद ने लुबना के आलोचन-लेखन, और साहित्यिक चर्चाओं में थोड़ी माया भर दी थी, वहीं लुबना के यथार्थवादी, और, फ़ेमिनिस्ट विचारों ने चंदर को ज़िंदगी के एक नए सिरे से परिचित करवाया था। अब वह नायिका की तुलना फूलों से करता तो था, मगर वर्णन में या तो वस्तविकताओं की कटुता होती, या त्रासदी। फूल अब ख़याली दुनिया के नहीं थे – सुंदर और स्थायी; अपितु अल्फ़्रेड पार्क के थे – रंगीन, किंतु कभी अधखिले, और कभी मुर्झाने की ओर अग्रसर।
वक़्त जहाँ आगे बढ़ता हुआ धुँधलाता गया, वहीं ये मित्रता और गहराती गई। बालों की सफ़ेदी, या घुटनों के दर्द ने इस पर कभी कोई आँच न आने दी। आज भी चंदर अपने सृजनत्मक विचारों पर लुबना की सलाह लेता, और लुबना अपनी व्याख्याओं की चर्चा चंदर से सदा ही करती। बस ऐसे ही एक दिन अल्फ़्रेड पार्क में घूमते-फिरते चंदर लुबना से कुछ आगे निकल गया, किसी और दुनिया में, शायद ज़िंदगी से बहुत आगे।
रीडर काउन्सिल लाइब्रेरी ने जब चन्द्रभान शर्मा की याद में एक स्टोरी-रीडिंग आयोजित की तो सर्वप्रथम प्रफ़ेसर लुबना सहाय को आमंत्रित किया। चन्द्रभान की आख़िरी किताब ‘किसी और आसमान में’ को प्रदर्शित करने की भी योजना थी, पर लुबना ने साफ़ इनकार कर दिया। “”चंदर को बुक-लाउंचेस से नफ़रत थी। अपने जीवन में वह कभी ऐसे किसी प्रोग्राम में नहीं गया। पर, उसे चर्चाओं का हमेशा से शौक़ था, तो, क्यों न उसकी कहानियों पे चर्चा की जाए?””
लुबना जैसे ही लाइब्रेरी पहुँची, उसे चंदर से अपनी पहली मुलाक़ात स्मरण हो आई। अपने कड़वे-से, आलोचनात्मक लहज़े को याद कर वह किसी सोच में डूबी हुई थी, जब किसी ने उसे पुकारा, “बड़ी ओल्ड-फ़ैशंड मालूम होतीं हैं, आप!”
“जी, आपने, मुझसे कुछ कहा?”
“जी मैडम, आप ही है न, मिस लुबना सहाय, चन्द्रभान शर्मा की दोस्त, और आलोचक?”
“जी, मुझे मिस लुबना कहो। तुम्हारा परिचय?”
“मेरा नाम महेंद्र साहू है, मुझे महेन कहें। आपसे एक प्रश्न पूछना चाहता हूँ; मुझे ग़लत न समझिए। मैं साहित्य का विद्यार्थी हूँ, और आपकी आलोचनाओं को कई वर्षों से पढ़ रहा हूँ। मैंने हमेशा आपके यथार्थवादी कटाक्षों की क़द्र की है। आपके फ़ेमिनिस्ट विचारों ने मुझे काफ़ी प्रेरित किया है। पर एक बात मुझे समझ में नहीं आई।””
“वह क्या?”
“आप अपने आप को नारीवादी कहतीं हैं, पर क्या आपको नहीं लगता कि चन्द्रभान शर्मा के महिला किरदार काफ़ी कमज़ोर होतें हैं? उन में अपने शोषण से लड़ने की ताक़त ही नहीं होती है। वे तो अब भी फूलों और कलियों की दुनिया में स्थित हैं! ये कहाँ तक सही है? और आपने इस पर कोई टिप्पणी क्यों नहीं प्रस्तुत की है?”
लुबना को लगा मानो समय का पहिया उलटा घूम गया है और वह एक पुराने से आइने के समक्ष खड़ी है।
“महेन, तुम्हारे प्रत्यालोचन के लिए धन्यवाद! एक पाठक की लेखक से कई प्रकार की अपेक्षाएँ होतीं है…”
लुबना को ऐसा प्रतीत हुआ जैसे उसके ज़रिए चंदर ही महेन से बातें कर रहा हो! “”महेन, नारीवाद का अर्थ मर्द समाज पर प्रहार करना नहीं है। इसके सही माइने अबद्धता में हैं; तो फिर स्वच्छंदतावाद, या आशावाद पर बंधन क्यों? चंदर के महिला किरदार फूलों की दुनिया में अवश्य रहते हैं, पर उन्हें अपनी कमज़ोरियों की समझ है। अपनी स्थिति बदलने के लिए ये किरदार शायद कोई आक्रामक प्रयत्न न करें, पर इनकी कल्पनात्मक सोच इन्हें अपनी समस्याओं से जूझने की शक्ति देती है। ये किरदार भग़ौड़े नहीं हैं! इन्हें अपने शोषण की समझ ज़रूर है – पर हाँ, समझ से कोशिश का रास्ता तय करना अब भी बाक़ी है। और ये रास्ता तो असल ज़िंदगी में भी तय करना बाक़ी है, नहीं?””
“पर, मिस लुबना, शर्मा साहब को फूलों से इतना अधिक लगाव क्यों? आप तो जानती ही होंगी?”
लुबना को स्मरण हुआ चंदर का किया वादा, जो वह कभी पूरा न कर सका। न उसे फ़ुरसत मिली, न लुबना ने ही कभी उसे दोबारा यह सवाल पूछा। काश, चंदर को कभी पूछ ही लिया होता, लुबना ने अपने आप से कहा!
“मिस लुबना, क्या आप कुछ जानती हैं?”
लुबना को चंदर से अपनी दूसरी मुलाक़ात स्मरण हो आई।
“उस दिन भी …”
“मिस लुबना? आप ठीक तो हैं? नेक्स्ट क्वेस्चन, प्लीज़?”
“नहीं, मैं जवाब दूँगी। चंदर फूलों का बेहद शौक़ीन था। उस दिन भी सुबह घूमने के लिए उसने दरिया किनारे के बजाय अल्फ़्रेड पार्क चुना था क्यूँकि पानी की लहरों के बजाय उसे फूलों के बाग़ के रंग और सौरभ की लहरों से बेहद प्यार था। और उसे दूसरा शौक़ था कि फूलों के पौधों के पास से गुज़रते हुए हर फूल को समझने की कोशिश करना। अपनी नाज़ुक टहनियों पर हँसते-मुस्कुराते ये फूल जैसे अपने रंगों की बोली में आदमी से ज़िंदगी का जाने कौन सा राज़ कहना चाहते है। और ऐसा लगता है कि जैसे हर फूल के पास अपना व्यक्तिगत संदेश है जिसे वह अपने दिल की पंखुड़ियों में आहिस्ते से सहेज कर रखे हुए हैं कि कोई सुनने वाला मिले और वह अपनी दास्ताँ कह जाए…”
कहते-कहते अचानक लुबना रुक गई। ऐसा प्रतीत हुआ जैसे चंदर की विचारधारा उसके अंदर कुछ इस प्रकार समा गई हो, जैसे वह उसकी अपनी ही सोच थी, और उस तक पहुँचने का रास्ता तलाश कर रही थी। क्या आज उसकी बजाय यहाँ चंदर होता, तो उससे जुड़ी बातों, विचारधाराओं को इस प्रकार अपना पाता? “लुबना यथार्थवादी ज़रूर थी, पर संवेदनशीलता भी उसमें कूट-कूट कर भरी थी। उसे आसमान में उड़ने का शौक़ नहीं था, बल्कि अपनी जड़ों से जुड़े रहने में सुकून महसूस होता था। और यह शायद इसलिए क्योंकि उसे आशावाद में अपनी वास्तविक लड़ाइयों को खो देने का डर था – वे लड़ाइयाँ जो उसकी अपनी भी थीं, और उस जैसी कई और महिलाओं की भी; संघर्ष जो उसे जीने के लिए प्रेरित करते थे, उसे समाज से जोड़ते थे, और उसी समाज को तोड़ने का भी होंसला देते थे! बड़े-बड़े चश्मों से झाँकती उसकी अत्यंत भाववाहक आँखें, या अपने ही अंदर झाँक कर धीरे से हँसने का अन्दाज़ मुझे अब भी स्मरण हो आते हैं!”
लुबना मुस्कुराई। इंटेलेक्चुअल कम्पैन्यन्शिप की शायद यही सबसे बड़ी ख़ूबी है, कि वह निकटता की ग़ुलाम नहीं!
वाह क्या परिपक्व लेखन शैली है आपकी। आनंद आ गया। पात्रों का चरित्र चित्रण व स्थापन जिस मनोवैज्ञानिक तथा भावनात्मक कुशलता से किया गया है वह भविष्य के लोकप्रिय कथाकार (एवं उपन्यासकार) के परिदृश्य पर उभरने की आहट है। संवाद लिखने का तरीका प्रसंशा योग्य है।भाषा में कतिपय स्थानों पर अँग्रेजी को प्रयुक्त किया है, जो कहीं सहज और कहीं असहज करता है। इस पर समय दें।
शिशिर सोमवंशी
मार्गदर्शक : कहानी सुहानी
मैंने सोचा नहीं था के कहानी ऐसे भी लिखी जा सकती है.. नमन आपके लेखन को 😊🙏