ट्रिंग ट्रिंग…
फोन की घंटी लगातार बजती जा रही थी .. सुबह के इस व्यस्त समय में फोन का आना अखर जाता था मुझे
– हैलो…
– अरे सीमा कहाँ हो भई…कितनी देर लगा दी
दूसरी तरफ जिठानी थी मेरी…
– क्या बताऊँ दीदी..
लगभग रूआँसी हो आई मैं..
– बस हर समय भागादौड़ी ही रहती है मेरी
– अरे भई कुछ समय अपने लिए भी निकालो..शाम को मैंने एक छोटी पार्टी रखी है और तुम्हे जरूर आना है और कोई बहाना नही सुनना मुझे
मैं कायल थी अपनी जिठानी की..कैसे वो इतना सब कर लेती थी और हमेशा चहकती रहती थी .. और मैं कभी अपने लिये ही समय नही निकाल पाती थी ..ठीक ही तो कह रही थीं वो .. मैंने हंस कर हामी भर दी.
कोई छोटी मोटी पार्टी नही थी अच्छा खासा जमावड़ा कर रखा था उन्होने वहाँ पर.. अचानक मेरी नज़र एक अधेड़ उमर की महिला पर पड़ी ..लोगों की भीड़ इकट्ठा कर रखी थी उन्होने ..कुछ तो दिलचस्पी से सुन रहे थे और कुछ व्यंग से मुस्कुरा रहे थे .. मुझे उनका चेहरा कुछ जाना-पहचाना सा लगा..अरे ये तो जानकी बुआ हैं! ..थोड़़ा आश्चर्य हुआ मुझे उनको देखकर ..कहाँ वो साधारण सी बुआ और कहाँ ये मेकअप से लिपी-पुती..
मैं उनके पास गई…उनके पैर छुए
-कौन?
शायद वो मुझे पहचान नही पाईं
– बुआ मैं सीमा आपके आनंद भाईसाहब की बहू..
– हैं!!!
शायद उन्हे सुनाई कम देता था .. मैंने फिर इतना जोर से कहा कि सब देखने लगे .. अब उन्होने कान की मशीन भी लगा ली
– अच्छा! तुम हो..और घर में सब कैसे है?… पूछते हुए उन्होने मेरा हाथ पकड़ कर बैठा लिया ताकि मैं कहीं भाग ना जाऊँ..
– सब ठीक है बुआ..आप सुनाइए
– सुनाएगें बाद में पहले चलो कुछ खा लें..
फिर उन्होने वेटर को बुलाकर अपनी प्लेट में सारे स्नैक्स भर लिए…ये देखकर कुछ दबी-दबी सी मुस्कुराहटें उभरने लगीं
मुझे भी थोड़ा अजीब सा लगा..वैसे भी कहीं जाकर एकदम खाने पर टूट पड़ना मुझे पसंद नही
– आप खायें बुआ मैं थोड़ी देर मैं लेती हूँ
अब तुमसे क्या छुपायें वैसे तो परहेजी खाना ही खाना पड़ता है ,बस कभी-कभी ही मौका मिलता है ये सब खाने का..उन्होने जल्दी-जल्दी खाते हुए कहा
– बहू है ना मेरी ..कुछ खाने नही देती है कहती है आप बीमार पड़ जायेंगी
– अच्छा है ना ..ख़्याल रखती है आपका, मान रखती है
– हाँ मान तो बहुत रखती है तभी तो अपने मकान में रखने का किराया लेती है मुझसे..
वो हँसते हुए बोली .. दंग रह गई मैं ये सुनकर.. कितनी फीकी थी उनकी हँसी
..उनके किस्से सुने थे मैने..फूफाजी एक सरकारी स्कूल में शिक्षक..सादगी से रहने वाले और अपने उसूलों से समझौता ना करने वाले..भले ही कितनी दिक्कतों का सामना करना पड़े..कितनी मुश्किलों से उन दोनों ने अपने बेटों को पढ़ाया था ..मैंने ये भी सुना था कि एक बार फूफाजी की तबियत बहुत ज्यादा खराब हो गई थी डाॅक्टर ने हल्का भोजन या सूप वगैरह बस लेने को कहा था तो यही बुआ सब्जियों का सूप बनाकर और बची छनी हुई सब्जियों को छौंक कर रोटी के साथ बच्चों को खाना खिलाती थी..खुद बुआ के पास चार साड़ी थीं..दो घर की और दो अगर कभी बाहर जाना पड़े तो..और फिर उनकी तपस्या का फल और बेटों की लगन और मेहनत कि एक बेटा डॉक्टर एक बेटा आईएएस ..
लोग सराहने लगे थे उनकी किस्मत..इसके बावजूद भी उनमें जरा सा भी फर्क नही आया हाँ बेटों के रिश्ते जरूर अच्छे घरों से आने लगे ..उन्होने अपने दोनो बेटों की शादी भी बिना किसी दान-दहेज के और सिर्फ दस-ग्यारह बारातियों को ले जाकर की..बल्कि कुछ लोग तो दबी जुबान में ये भी कहने लगे थे कि जरूर लड़कों में कुछ कमी होगी वरना आजकल कौन इतने काबिल बेटों की शादी बिना पैसों के करता है
और आज उनकी ये किस्मत..
– वैसे पैसे की कोई कमी नही है, सब है भगवान की दया से..तुम्हारे फूफा इतना तो कर गए हैं मेरे लिए, ज़िंदगी से कोई शिकायत नही हाँ बस एक गल्ती हुई जो अपना सबकुछ अपने बेटों के नाम कर दिया .. तुम्हारे भी तो बेटा है ना तुम वो गलती मत करना..
वो फिर से हँसती हुई बोलीं..वही फीकी सी..
– लेकिन जानती हो ना भगवान सब देखता है , मैं किसी को बद्दुआ नही दे रही , दे भी नही सकती ..मेरा बेटा जितना भी मुझसे लेता है वो सब उसकी बीवी के इलाज में खर्च हो जाता है..अभी कुछ दिन पहले ही कोई बीमारी निकली है उसको ..लीवर की ..खाना-पीना बंद हो गया सो अलग..
हम दोनों कुछ देर चुप रहे ..
– दुख तब नही होता जब बहुएँ मुझे कुछ कहती है, तब होता है जब बेटे उन्हे कुछ नही कहते..
मैं जानकी बुआ को निहारती गयी कि कैसे पल भर पहले का बचपना अब असहाय परिपक्वता में बदल गया था
– पता नही मेरे माँ-बाप ने क्या सोचकर मेरा नाम जानकी रखा कि किस्मत भी वैसी ही रही ..हमेशा पति के साथ मुश्किलों का सामना किया हँसते-हँसते और जब सब सुख भोगने की बारी आई तो साथ न रहा .. सोचा था कि बच्चों के साथ बुढ़ापा आराम से कट जाएगा लेकिन वही अकेलापन .. खैर किस्मत है
वो मुझे अपना समझ कर कहानी बता रही थीं .. ये सोच कर मैं मैंने उनके हाथ पर अपना हाथ रख दिया ..
– अच्छा और अब जानती हो मैं लिखने लगी हूँ..चुटकुले लिखती हूँ हँसाती हूँ सबको..देखो ये छपवाया भी है तुम पढ़ो और किसी को भी चाहिए क्या…
मैं हैरान हो कर उनके हाथ से ले कर अखबार पढने लगी .. जानकी बुआ तो बड़ी छुप्पी रुस्तम निकली ..
उन्होने आस-पास सिमट आए लोगों से भी कहा पढने को .. लेकिन शायद लोगों को सिर्फ अपनी उनकी कहानी में रूचि थी ..वो सिर्फ एक सास-बहू की चटपटी कहानी को सुनने के इच्छुक थे .. आसपास के लोग चले गये थे ..और मैं उनकी कहानी चुटकुले पढ़ कर मुस्कुरा रही थी ..
वो मुझे मुस्कुराता देख कर थोड़ी पास हो आयीं और मेरे हाथ पर हाथ रख कर बोलीं ..
– सुनो तुम रात में मेथी भिगोकर खाया करो .. थोड़ी मोटी हो गई हो ना .. वैसे तो सब कहते हैं हम हैं आप के पास .. लेकिन एक बहुत पते की बात बताऊँ .. अपना ख़्याल खुद रखा करो क्यूंकि ..कोई और नही रखेगा ।
लेखिका : शिखा सक्सेना
संकलन : अग्नि परीक्षा
फुट नोट :
इस रोचक “अग्नि परीक्षा” संकलन की भाँति ही हम अन्य ऐसे कई संकलनों पर कार्यरत हैं । यह एक ऐसा अनोखा प्रयास है जिसमें संघ समीक्षा एवं टिप्पणियों के फलस्वरूप हम कहानियों को अंतिम रूप देकर आपके समक्ष प्रस्तुत करते हैं ।
यदि आप भी इस ‘विशेष’ कहानी लेखन कार्य मे भाग लेना चाहते हैं तो हम से ईमेल के द्वारा संपर्क करें ।
-धन्यवाद
आजसिरहाने
aajsirhaane@gmail.com
Bahut saralta se kahi gayi markik kahani!! Achchha laga ki koi hanste hue apne ghamoN se laD sakta hai, rona-dhona chhoD kar aage badhne ki pravriti bhi har kisi mein kahaN hoti hai??
Badhai shikha!!
शुक्रिया आपका
बेहद उमदा क़हानी!!
बहुत-बहुत धन्यवाद
अच्छी कहानी।
उम्दा कहानी लिखने का कॉपीराइट है आपके पास 😊
बहुत अच्छी कहानी