स्वलेख : April 21, 2017
मार्गदर्शक : अर्चना अग्रवाल
विषय : संध्या
चयनित रचनाएं
@BeyondLove_Iam
रवि का अंत नही संध्या,
ना रश्मि की मृत्यु-शैय्या है,
दिवस का अंतिम चरण भी नहीं,
ना विदाई गीत गाती चिरैया है।
संध्या तो चंद्र का प्रारंभ है,
कोमल चांदनी की जन्मदायिनी है,
रात्रि का मादक प्रथम प्रहर है,
नभ से उतरती सुनहरी कोई कामिनी है।
आयु का प्रौढ़ रूप नहीं ये,
धूप से जली थकान नहीं है।
विरह नहीं है, वियोग नहीं है,
जोश में उफनता तूफान नहीं है।
अनुभव से पकी परिपक्वता है,
अंधकार से युद्ध को तैयार है,
प्रेम है ये, मिलन है, अनुराग है,
संयम से ठहरी सी जलधार है।
सुनो मानव, संध्या-गीत उदास न गाओ,
संध्या सुंदरी आई है, प्रेम से अपनाओ,
करो ज्ञान-पथ को रौशन संध्या में,
मोक्ष द्वार यहीं से खुलेंगे, चले आओ…
चले आओ…..!
@espiritz_
कवि की कल्पना की
पराकाष्ठा महसूस करनी है
तो देखो किसी शाम को
ढल जाओ सूरज के
प्रतिबिम्ब में
खोल दो अपने रंगों के
पिटारे को
बिखर जाने दो उनको
खुले आस्माँ में
फिर धीरे-धीरे उन सभी
रंगों को एक हो जाने दो
घुल जाने दो एक साथ
वहीं उसी क्षण
उसी पल जन्म लेता है
अंदर का कवि
रचता है एक अद्भुत संसार
जहाँ सिर्फ़ मिले हुए
रंगों से बनी
रात की कालिमा नहीं होती
भोर का उजाला ही नहीं होता
उसमें मिला होता है
सुरमई शाम का रंग
वो रंग जो जीवन देता है
जीने की वजह देता है
उत्साह देता है
ढलते हुए सूरज से
फिर एक नई सुबह का
वादा लेता है….

जहाँ दिन ढले, और रात न हो,
जहाँ तुम मिलो, पर साथ न हो,
मध्यम रोशनी, कुछ लालिमा भी,
और चाँद-रात की कामना भी,
उस वक़्त कहीं तुम ठहर जाना,
वो शाम तुम्हारी भी होगी,
उस वक़्त कहीं तुम ठहर जाना,
वो घड़ियाँ हमारी ही होंगी…
दो पल ही मिलेंगे कहीं,
कुछ लम्हें जुड़ेंगे यूँ ही,
बीती हुई कुछ बातों में,
कुछ सपने बुनेंगे कहीं।
पर भूल न जाना तुम ये बात,
कुछ घड़ियों में जो होगी रात,
तब चल पड़ेंगे हम-तुम,
अपने-अपने रास्तों में गुम,
मिलना होगा फिर यादों में,
या भूली-बिसरी बातों में…

शाम आती है उस ही तरह,
पर शाम अब वैसी नहीं है।
काली है अब,
अजनबी है अब,
शाम अब गुलाबी नहीं है।
समुंदर की दहलीज से हर शाम…
नीचे उतरता है सूरज आज भी,
दहलीज पर आकर समुंदर से बतियाने अब ठहरता नहीं है।
शाम बदली है,
या नज़र मेरी,
तू बदल कर गया है कुछ तो…
शाम का जादू मुझ पर अब चलता नहीं है।