रुका हुआ सावन
लेखिका : श्रद्धा उपाध्याय
जब सुनिधि सीएसटी स्टेशन पहुँची तो ट्रेन प्लेटफ़ॉर्म पर लग चुकी थी। उसने ट्रेन का नंबर 11057 सुनिश्चित किया और फिर अपना सामान लेकर वह बी 2 में चढ़ गई। बाहर हल्की बारिश हो रही थी। सुनिधि गेट पर खड़ी हो गई और उस शहर को देखने लगी। स्टेशन पर बेशुमार लोगों के ग़ुबार की ओर हाथ हिलाते हुए उसने इस बेरहम शहर को अलविदा कहा। आखिर में उसने वहाँ के आसमान को देखा जिसमें उसके नाम का एक भी तारा ही नहीं था। तारे यहाँ की रफ़्तार की आँधी से कब के बुझ गए। कुछ भीगी-कुछ कांपती सुनिधि कुछ देर ट्रेन के गेट पर खड़ी रही। फिर एकदम उसका फोन पर ला ला लैंड की थीम वाली रिंगटोन बजी तो उसका ध्यान टूट गया। उसने फोन उठाया और कंधे से कान पर फोन दबाकर अपने ट्रोली बैग को खींचते हुए डिब्बे के दाख़िल हुई।
“बी २ में २ है। मैं ऑफिस में थी तो टिकट गौरव ने किया है। मतलब मिडल बर्थ, २४ घंटे का सफ़र काफी नहीं था। सीधे ऑफिस से आ रही हूँ। और तो और आई ऍम वियरिंग फोर्मल्स। भैया, आई विल कॉल यू लेटर, सामान लगा लूँ।”
उसने केबिन में आकर लाइट जलाई, सामान को बर्थ के नीचे घुसाया और चेन से सामान लॉक कर दिया। सामने वाली बर्थ पर एक चालीस-पैंतालीस साल की औरत और उसका किशोर लड़का था। सामने की ऊपर बर्थ खाली थी। उसके साथ वाली बर्थ पर एक जवान लड़की थी और लोअर बर्थ पर अभी तक कोई आया नहीं था। सुनिधि को किसी भी ट्रेन पैसेंजर की तरह मिडल बर्थ से घोर नफ़रत थी। लंबे सफ़र में इससे बड़ा अभिशाप भी कोई नहीं था। खैर जाना ज़रूरी था। इकलौता भाई दो साल बाद अमेरिका से ग्वालियर लौटा है और मौका भी रक्षाबंधन का है। कितने सालों बाद इस त्यौहार में मायने भरे हैं।
सामान लगाकर सुनिधि आराम से बैठ गई और खिड़की से बाहर झाँकते हुए अपने बाल खोलकर टॉवल से सुखाने लगी। तभी सामने वाली औरत ने बोला,
“एक्सक्यूज़ मी, आप कपड़े बदल लीजिए। अभी तो वाशरूम भी साफ़ होंगे। नासिक के बाद तो उम्मीद ही छोड़ दीजिएगा, मैं देख रही हूँ आपका सामान।”
“थैंक्यू सो मच!”
कुछ झिझक से सुनिधि ने अपने बैग से एक कैपरी और टी-शर्ट निकाली और अपना हैंडबैग लेकर वाशरूम चली गई। लौटी तो सामने वाली औरत ने बताया कि वो अपना फोन सीट पर छोड़ गई थी। फोन पर गौरव के तीन मिस्ड कॉल थे। उसने हाथ में पेंट-शर्ट पकड़े हुए फोन उठाया और गौरव का नंबर डायल किया,
“व्हाट्सएप किया तो था कि बैठ गई। अब तुम अपने इनसोम्निया को मेरी चिंता का नाम न दो। हाँ अब सब ठीक क्या होगा, फर्स्ट केबिन की मिडल बर्थ तो तुमने दिलवा ही दी है। अब सो जाओ। डोंट बिंज वाच एनी शो…हाँ अटेंडेंट से पानी मँगवा लूँगी। सुबह खाना ऑनलाइन ऑर्डर कर दूँगी। और कुछ? लव यू टू।“
तभी सामने वाली औरत ने अपने छोटे बैग में से एक मठरी और चिक्की का डिब्बा निकाला और उसके आगे करते हुए बोली-
“आजकल बच्चों को लेट तक जागने की आदत होती है। आदित्य को तो मिडनाइट स्नैकिंग के लिए कुछ न कुछ चाहिए। अब ये चिप्स वगैरह तो…”
सुनिधि ने नम्रता से कहा, “थैंक्यू सो मच, आई ऍम फुल अभी।”
आदित्य ने आई-पैड से एक मिनट को निगाह हटाई। उसकी माँ ने एकदम आई पैड उसके हाथ से छीना और डिब्बा थमा दिया,
“पहले खा ले। मैं तब तक अपना फेसबुक चेक करती हूँ।”
सुनिधि ने अब तक अपना किंडल निकलकर एक किताब पढ़ना शुरू कर दिया था। पर उसका सारा ध्यान माँ-बेटे की बातचीत में था। अब सामने वाले लोग आदित्य और उसकी माँ बन गए थे, माँ ने आई पैड पर अपना फेसबुक अकाउंट खोला और उँगली को ऊपर-नीचे घुमाने लगीं।
“क्यों आदि, ये स्टोरी कैसे बनाते हैं?”
“मम्मी, आपको क्या करना स्टोरी बनाकर। मैंने तक नहीं बनाई आजतक।”
“तू तो बोर है। अच्छा ये देख इसने फोटू के अंदर ये हँसते-हँसते रोने वाला इमोटिकॉन डाल दिया। अब पोस्ट कर दूँ, अरे हैश टैग डालकर गेटवे ऑफ इंडिया तो लिखना भूल ही गई।”
“ह्म्म्म…”
“देख ये तेरे मामाजी अभी नेपाल गए थे, सोना दीदी को देख।”
“हाँ सोना दी को देखा था मैंने इन्स्टा पर।”
“अरे ये टीना ने कैसे कपड़े पहने हैं? शादी के बाद हमने तो सवा महीने तक चूड़ा पहना थे। इनके तो दूसरे ही दिन हाथ नंगे हो गए।”
“मम्मा, भाभी अपने हनीमून पर मालदीव्स में सोलह श्रृंगार करेंगी क्या?”
“तू तो पागल है। आय-हाय कितनी बड़ी हो गई हर्षा। आज तो मैं इससे बात करूँगी।”
“कौन हर्षा मम्मी?”
“हर्षा नहीं, हर्षा दीदी। मेरे जीतेंदर भैया यानी तेरे मामा की बेटी है।”
“मैंने तो कभी नहीं देखा इन मामा को।”
“तू कैसे देखेगा, कितने सालों से तो मैंने ही नहीं देखा। शायद मेरी शादी के बाद एकाध बार और मिलें हों। इनकी बेटी दो साल की थी मेरी शादी में। स्टेज के हर फोटो में बीच में बीच में बैठी दिखेगी। गुड़िया जैसी दिखती थी।”
“आप क्यों नहीं मिलीं इनसे कभी?”
“बेटे इन सवालों के जवाब नहीं होते। वजहें तो खैर बहुत हैं। एक तो तेरे पापा की फैमिली भी बड़ी है और भैया कुछ सालों के लिए बाहर चले गए थे। फिर सगे भाई भी तो चार हैं। औरत के लिए रिश्तों को संभालना है रस्सी पर चलने जैसा होता है। अब तो टेक्नोलॉजी के इतने साधन हैं, हमारे टाइम तो बस लैंडलाइन होते थे। उस पर भी फोन घुमाने की छूट नहीं होती थी।”
“आप तो किसी दूसरे ज़माने में पहुँच गईं।”
“बेटे, तुम लोगों को तो हमारी सब बातें गप्प लगती हैं। जीतू भैया कैसे मेरे लिए मंदिर के बगल वाले ठेले से गजरे लाते थे। हम हमेशा एक थाली में खाना खाते थे…ताई कहती थीं कि मैंने ही बिगाड़ रखा है भाई को। उनकी शादी में हर गठबंधन मैंने ही किया था। एक हमारा बंधन ही मज़बूत न रहा। ये वक़्त खा गया रिश्तों को…”
“मम्मा अब इतना इमोशनल ड्रामा भी मत करो।”
माँ-बेटे की इस प्यारी बातचीत की ओर सुनिधि खिंची जा रही थी। माँ के मासूम सवाल और बेटे के बेपरवाह जवाब। उस औरत की आँखें अब चमकने लगीं थीं, उन आंसुओं से जिन्हें साहिल न मिला था। दुःख में गहराई इतनी है कि कभी सतह नहीं पाता। सुनिधि चोरी से कभी उस औरत को देखती और उसमें अपना अक्स तलाशती। उसकी हर बात में उसे अपने जीवन का आईना दिख रहा था। वैसे भी सुनिधि को अब लगने लगा था कि ‘हम सब अलग हैं’ टाइप के फ़लसफ़े ने इस पीढ़ी का बहुत बुरा किया है। हम सब एक ही तने की तो शाखाएँ हैं। खैर उतनी सूक्ष्मता अब किसी के ध्यान में नहीं कि अपने अंदर की उन गहराइयों तक पहुँच पाए।
उसने आँसू पोंछे और हर्षा की प्रोफाइल पर क्लिक किया। वहाँ मैसेज के आइकॉन पर गई और हर्षा को पहले बहुत प्यार दिया और फिर उससे अपने जीतू भैया का नंबर माँग लिया। फिर आईपैड बेटे की ओर बढ़ाते हुए बोलीं:
“अच्छा आदि देख, सही टाइप किया है न? भेज दूँ?”
आदित्य ने मैसेज पर एक नज़र डाली और कहा, “भेज दो, पर अभी ऑनलाइन नहीं है ये”।
“तेरी तरह निशाचर थोड़े ही होगी। अभी भेज देती हूँ, सुबह देख लेगी।”
“मम्मा चलो अब बर्थ खोल लेते हैं, एक बज चुका है।”
“हाँ हाँ, नींद आए तो फ़ौरन सो जा, वर्ना तेरा कोई हिसाब नहीं है।”
वो दोनों लोअर बर्थ पर से खड़े हुए और सुनिधि की ओर पीठ कर मिडिल बर्थ खोलने लगे। तभी एकदम उस औरत ने पीछे मुड़कर कहा, “तुम भी अपनी बर्थ खोल लो, यहाँ आँख लग गई तो लोअर वाला आकर डिस्टर्ब करेगा।”
हाँ में सिर हिलाकर सुनिधि अपनी बर्थ खोलने लगी। छोटे कद के कारण उसका हाथ बेल्ट पर पहुँच नहीं रहा था और अपर बर्थ वाली लड़की अब तक सो चुकी थी। आदित्य की माँ ने उसकी परेशानी देखकर बर्थ लगाने में उसकी मदद की।
उस औरत का ममत्व देखकर सुनिधि का मन कृतज्ञ हो उठा। उसे बहुत छोटा महसूस होने लगा। शायद औरत जब माँ बनती है तो किसी एक इंसान की नहीं रह जाती, वो हर ओर प्रीति फ़ैलाने लगती है। सुनिधि का जी चाहता था कि किसी तरह उसकी भतीजी का जवाब आ जाए और इन दो बिछड़े भाई-बहन का मिलन हो जाए। कितने समय बाद उसने नकारात्मकताओं की दुनिया से बाहर झाँका था।
रात अब उसकी आँखों पर चढ़ रही थी पर नींद की कोई खबर नहीं थी। वो अब इस पूरे संसार में बहुत अकेला महसूस कर रही थी। उसका दिमाग अब यादों के कारवाँ पर निकल चुका था, उसे थामना उसके बस में नहीं था। उसके बस में कब कुछ रहा है। कितने सुनहरे थे वो मासूम दिन, जहाँ हर दिन मरने के लिए दफ़्तर नहीं जाना होता था। जब वो इंसान थी, किसी महानगर की मुफ़स्सल भीड़ नहीं।
कुछ परिवर्तन सिर्फ एक छोटे शहर से बड़े शहर तक सीमित नहीं होते। हमारी सोच के दायरे बढ़ जाते हैं। उसके साथ ही हमारी उदारता सीमित हो जाती है। हम बस कुछ लोगों के हो जाते हैं। बचपन में जो पूरे मौहल्ले की कन्या खा जाती थी वो अब बस एक घर की पूजा सँभालती है। हम छोटे होते जाते हैं और हमारा अहम् बढ़ता जाता है।
सुनिधि का मन इसी उधेड़बुन में लगा था। तभी उसने अपना किंडल बंद किया और फ़ोन में अनुष्का शंकर की एक एल्बम लगाकर इयर फोन लगा लिए। उसका मन अशांत हो रहा था। वो एक एप से दूसरी एप पर जाती रही पर उसे शान्ति नहीं मिली। इतने जानने-पहचानने वाले और साथ को कोई नहीं। उसने कॉन्टेक्ट्स खोला और गौरव का कांटेक्ट निकाल और फिर डायल करते-करते रह गई। यह लड़ाई उसकी अपनी थी।
ये टेक्नोलॉजी के शोर में सबकुछ इतना बाहरी हो गया है कि अंदर कोई देखना ही नहीं चाहता। हमें किससे ख़ुशी होती है ये न हम जानते हैं, न जानना चाहते हैं। हमें जिससे ख़ुशी होनी चाहिए उससे ख़ुश हो जाते हैं। हम किसके नज़दीक हैं, हमें नहीं पता। हमें किस के नज़दीक होना चाहिए, ये हम जानते हैं। अब देखिए न बचपन से सुनिधि, यश और रोहन एक साथ ही पले-बढ़े थे। सगे-सौतेले की कभी बात भी हुई हो। पर आखिर खून का खून और पानी का पानी हो ही गया। रिश्तों में इतना बड़ा फ़ासला आ गया और किसी ने उस पर संपर्क का पुल भी नहीं बाँधा। न कॉल्स, न मेसेजिस। एक फैमिली व्हाट्सएप ग्रुप से सब जुड़े थे पर सुनिधि ने अपने क्रांतिकारी दौर में उसे भी एग्ज़िट कर दिया था।
ऐसा नहीं है कि बिलकुल कभी मिले ही नहीं पर मिलने में वो आत्मीयता और गर्मजोशी नहीं रही। उनकी नई और आधुनिक ज़िन्दगी का बोझ काफी था बचपन के स्मृति संसार को रौंदने के लिए। इतने साल गुज़रे और गुज़रा वक़्त याद भी न आया। कितना मृत हो गया था उनका मन। इतने साल भी काफी नहीं थे कड़वाहट मिटाने के लिए। यह कड़वाहट अब जैसे खून में मिल गई हो।
सुनिधि को सब याद आया, भाइयों की फ़ौलाद जैसी बाहें, उन पर झूलता उसका मासूम बचपन, बचपन के वो बेतरतीब चित्र और फिर अचानक वो सिहर उठी। ऐसा लगा जैसे किसी ने उन चित्रों पर कालिख़ पोत दी हो। उसकी आँख लग गई थी पर ये नींद नहीं थी, नशा था। अब रात के तीन बज रहे थे और नीचे वाली बर्थ पर कोई पैसेंजर आ चुका था। स्टेशन शायद नासिक था या मनमाड़। ट्रेन के ए.सी. डिब्बे हमेशा किसी गहरी नींद में सोए रहते हैं। यहाँ स्टेशन के आने-जाने से कोच के वातावरण में कोई बदलाव नहीं आता।
उसने म्यूज़िक के वॉल्यूम बढ़ा ली पर फिर भी उसके अंदर का शोर शांत नहीं हुआ। उसके ध्यान में रोहन भैया का चेहरा रह-रहकर छा रहा था। भाभी की शक्ल तो उसे अब याद भी नहीं थी। जब रोहन भैया की शादी हुई थी तो सुनिधि के जीवन में कैसे खुशियों के बाग़ खिल गए। बहन की हर रस्म उसने निभाई थी। भैया ने भी इकलौती बहन पर दोनों हाथों से पैसे लुटाए थे। वही हाथ रक्षाबंधन पर सूने रहते होंगे, इस ख़याल से मानो उसकी आंतों में अंटे लगने लगे। कहाँ रह गई सुबह, सुनिधि को सुबह चाहिए थी अपने अंदर का अँधेरा छिपाने के लिए। उसने फिर से फोन उठाया, उसकी तेज़ रोशनी उसकी आँखों में एकदम लगी। नींद-भरी आँखों को रोशनी कहाँ अच्छी लगती है। उसने फोन को अपने सीने पर रख दिया, एक भार और सही। वो खुद को समझाती रही कि नींद आ जाएगी और फिर उसे ख़यालों के इस भँवर से निजात मिल जाएगी। और फिर अचानक उसे याद आया कि सुबह तक सामने वाली औरत को अपने भाई का नंबर मिल जाएगा।
जब उसकी आँखें जलने लगी और सिर दर्द से फटने लगा, तो वो थक-हारकर सो गई। जब जागती अन्तश्चेतना के साथ इंसान सोता है तो फिर विचार संसार सपनों में जागृत हो जाता है। किसी अबोध्य स्वप्न के टूटने से जब सुनिधि जागी तो घड़ी में साड़े नौ बज रहे थे और ट्रेन नेपानगर पर खड़ी थी। कुछ देर बाद खण्डवा आ जाएगा। रोहन भैया के फेवरेट सिंगर किशोर कुमार वाला खण्डवा। कब से उनकी आवाज़ में मेरी भीगी-भीगी-सी पलकों में नहीं सुना। अब बच्चों को किशोर दा के गानों की लोरी सुनाते होंगे। उसने अपने भाई के बच्चों को पराया कर दिया। उसने बुआ के रिश्ते को कोरा कर दिया। अब उसकी आँखें डबडबाने लगीं। उसने चादर हटाया, तब ही नीचे से एक आदमी बोला,
“एक्सक्यूज़ मी, अगर आप नीचे आ रहीं हों तो बर्थ नीचे कर लें, वो एक्चुअली मुझे नाश्ता करना था।”
“यस, श्योर।”
उसने अपना हैंडबैग और फ़ोन नीचे रखा और अपने सामान को सामने वाली औरत की हिफ़ाज़त में छोड़कर वाशरूम चली गई। लौटी तो देखा फोन पर मम्मी और गौरव के मिस्ड कॉल्स थे। उसने दोनों को मैसेज किया और बैग में से फेस टॉवल निकालकर चेहरा पोंछा। वो चेहरा जिसे अब कोई और ही सूरत लग गई है। तभी सामने वाली औरत अचानक चिल्लाई,
“अरे वाह! मिल गया भैया का नंबर। साथ में किस वाला इमोटिकॉन है।”
“मम्मा, टेक इट ईज़ी।”
“चुप ओय, मुझे फोन लगाने दे।“
वो औरत अब फिर से दस साल की हो गई थी। उसने चहकती आवाज़ में बोला,
“हेल्लो भैया, जीतू भैया, मैं बेबी बोल रही हूँ…”
उसका बचपना देखकर आदित्य थोड़ा शर्मिंदा हो गया और सुनिधि मुस्करा उठी। अब उसके मन में एक छोटी-सी लड़की और उसके भैया की तस्वीर घूम रही थी। वो औरत अब फोन लेकर कोच के बाहर चली गई, अंदर नेटवर्क नहीं आ रहा था। अब बस धीमी-धीमी आवाज़ें आ रही थीं। कितना मनोरम रिश्ता है ये, बस एक बार आवाज़ लगाई और हाथ थाम लिया।
वो वापस आई तो चेहरे पर ख़ुशी छिपाए नहीं छिप रही थी। सुनिधि के मन का उतावलापन भी कुछ कम हुआ। उन भाई-बहन के मिलन पर परोक्ष रूप उसने भी अपना मन भर लिया। तभी उसका फोन बज उठा,
“हाँ गौरव, नहीं प्लीज़ कुछ ऑर्डर मत करो…अच्छा सुनो…रहने दो…वो तुमने दीदी का गिफ्ट भेज दिया न? अच्छा कूल! बाय।”
बैठे-बैठे उसका मन फिर स्मृति यात्रा पर निकल गया था। हर रक्षाबंधन एक पुरानी फिल्म रील की तरह याद आ रहा था। पहले तो खैर सब लोग एक साथ घर पर रक्षाबंधन मनाते थे। भाई इतने थे कि पूरा दिन चूल्हा चलता था। खूब कमाई होती थी। बहुत छुटपन में कभी गाँव, कभी ममियाने जाते थे। झूलों वाला सावन तो खैर कब का सूख गया। फिर जब सुनिधि हॉस्टल आई तो सबको राखी पोस्ट करने लगी। किसी का जवाब आया तो आया, न आया तो न सही। कपट तो बाद में आया। फिर ऑनलाइन आर्डर करने लगी तो निजता जाती रही। और कुछ सालों बाद ई-राखी, जो इस ई में शामिल नहीं थे दूर हो गए। आदमी के इवोल्यूशन में कई लोग जो उसकी ज़रूरत के नहीं होते, स्वतः पीछे छूट जाते हैं। इसी तरह कितने बंधन बेध्यानी में ही खुल गए। हाय अब कहाँ बरसते हैं वो टेढ़े मेढ़े टीके, साल भर की राखियों के वायदे और कान के पीछे लगी भुजरिया वाले सावन!
रोहन भैया तो खैर हर दौर में साथ थे। फिर जब गौरव मिला तो उसके मुहब्बत के मूल को सूरत मिल गई। तब उसे कहाँ किसी की पड़ी थी। उसे क्या मालूम था कि गौरव की बाहों की गर्माहट में भी वो सर्द रह सकती है। गौरव उसका सर्वस्व हो गया था। उस एक रिश्ते को जोड़ने के लिए, उसने कितने रिश्ते तोड़ दिए। खैर उसे आज भी लगता है कि वो किसी व्यक्ति के लिए नहीं पर स्वाधीनता के सिद्धांत के लिए लड़ी थी। पर मुहब्बत भी तो समर्पण चाहती है। घरवाले शादी के साल-दो साल बाद मान गए। पर तब तक उसके लिए परिवार की परिभाषा बदल गई थी। उसे बस हाथ थामने को चाल लोग चाहिए थे, बाहों में भरने को संसार नहीं।
रोहन भैया से वो बड़े दिन नाराज़ रही। पहले नाराज़ी तार्किक होती है और फिर वो एक आदत बन जाती है। दुःख की आदत टूटना भी एक हादसा ही होता है। भैया ने दो-तीन बार कॉल किया था। हमेशा कहते थे कि वो उसके साथ हैं पर घरवालों के सामने कुछ नहीं कह सकते। उसने बिगड़कर कहा था कि उसे न उनकी ज़रूरत है, न उनके घरवालों की। जब शादी हो गई तो उन्होंने फिर कॉल किया बधाई देने को। तब तो उसे फूल भी शूल लगते थे। उनकी शादी में उसने कैसे सब आगे बढ़कर संभाला था, वही भाभी ने कभी झूठे मुंह भी बात नहीं की।
अचानक उसे बहुत शिद्दत से उनकी याद सताने लगी, वो सोचने लगी कि भैया कैसे उसका नाम लिया करते थे, उनका वो बेपरवाह छुअन कैसा था जो सीधे उसके गालों पर पड़ता था, भैया कैसे उसके प्रोजेक्ट्स बनाते थे, उनके बच्चे कैसे दिखते होंगे, भैया को भी तो अब सफ़ेदी लगने लगी होगी…दिल्ली न जाने उन्हें कैसे रखती होगी, क्या उन्होंने ग्वालियर नहीं याद आता होगा…उसने अब अपना फोन उठाया और फेसबुक खोला। फेसबुक पर उसने भैया की प्रोफाइल खोली। एक यही जगह थी जहाँ वो अब भी भाई-बहन थे। भैया छः महीने पहले भोपाल शिफ्ट हो गए थे। जॉब भी नई है। ऐसा क्या हुआ होगा…सुनिधि को अटपटा लगा…उसने सोचा कि माँ को फोन करके पूछे पर फिर ख़याल छोड़ दिया। आज वो भावों के आवेग में बह जाना चाहती थी, अब उसे तर्क की ज़रूरत नहीं थी।
ट्रेन अब ओबेदुल्लाह गंज पहुँच चुकी थी। ग्वालियर पहुँचने में अब भी सात-आठ घंटे थे। उसने मैसेंजर खोला और भैया को हैलो भेजा। उसके शरीर में एक अजीब-सी सिहरन होने लगी, हालाँकि मन अब हल्का था। कुछ पंद्रह-बीस मिनट में उनका जवाब आया, “हैलो निधि बेटा, हो गया गुस्सा ख़त्म। आ गई भाई की याद।” मैसेज के नीचे उनकी लोकेशन लिखी थी, न्यू मार्केट, भोपाल। तब उसने सामने वाली औरत से अगले स्टेशन के बारे में पूछा। उसने जवाब दिया कि, “हाँ, हमें तो सब स्टेशन का पता है। पूरा दिल्ली तक जाएँगे। अब बस अगला स्टेशन भोपाल हबीबगंज और फिर भोपाल जंक्शन।”
भोपाल सुनकर वो अचंभित हो गई। उसने फिर से फोन उठाया और रोहन भैया की प्रोफाइल देखी, उनका प्रोफाइल पिक खोला और फिर फोन रख दिया। अब उसने अपना हैंडबैग उठाया और अंदर वाली जेब में से चाबी निकाली और ताला खोलकर चेन निकाल दी। सामने वाली औरत उसे हैरत से देखती रही। उसने अपना ट्रोली बैग बर्थ के नीचे से निकाला, हैंडबैग टांगा, फोन को पीछे वाली पॉकेट में रखा और स्टेशन पर उतर गई। प्लेटफ़ॉर्म पर एक स्टाल के पास खड़े होकर उसने फोन निकाला, मैसेंजर खोला और भैया को टेक्स्ट किया:
भैया, आपका एड्रेस क्या है?
{समाप्त}
लेखिका : श्रद्धा उपाध्याय
सुदूर किसी पहाड़ से कोई झरना इठलाते बल खाते अपने पूरे वेग से मानो बह रहा हो। साथ-साथ कंकड़ पत्थर और जो कुछ भी उसमे तैर सकता है। सब को समाय बस चले जा रहा। कभी संगम पर डुबकी लगता कभी किसी घाट पर यादों की अस्थियां समेटता निरन्तर बह रहा हो, और फिर अचानक सामने एक अथाह सागर आ जाता है और कल कल बहते जल को जैसे मंज़िल मिल गई वो धीरे से बिना क्षण गवाएं उस मे समा गया।
ऐसी ही लगी मुझे ये कहानी, एक बात और इतनी गहराई और रिश्ते की ऐसी तपिश केवल वो ही कलम में बाँध सकता है जिसने ये सब जिया हो कही ना कहीं ये सावन लेखिका के जीवन से जुड़ा लगा। खैर बहुत खूबसूरत कहानी पढ़ने को मिली । शुक्रिया आजसिरहने, और लेखक को बधाई।
सुदूर कहीं पहाड़ो से गिरता कोई अल्हड़ झरना बल खाता इठलाता मानो बह रहा हो अपनी ही लौ में, सब कंकड पत्थर खुद के वेग में समेटे निरन्तर बिना रुके, हर रुकावट को फांदता अपने अंदर अनगिनत यादों का पिटारा लिए कभी मैदानों से कभी पहाड़ो से बहता कभी संगम में डुबकी लगता तो कभी किसी घाट पर अपने, अपनो की अस्थियों को खुद में समेटता बस चला जा रहा। और फिर अचानक एक सागर नज़र आता है बहुत बड़ा अथाह सागर और झरना खुद को उसमें समा देता है बिना पल गवाएं।
ऐसी ही लगी मुझे ये कहानी। रिश्तों को इतनी गहराई से वो ही गढ़ सकता है जिसने ये सब जिया हो, कहीं कहीं लगा लेखिका ने अपने ही किसी सफर को कलम से उकेरा है। आजसिरहाने का शुक्रिया और लेखिका को बधाई इतनी खूबसूरत कहानी पढ़वाने के लिए।
well post..👍