लेखक : जॉय बनर्जी
वो मुझे चिढ़ाने के लिए “जूड़ी जो जो” बुलाती, और मैं “ज़क्कू चुटिया”। क्लास थर्ड में रहा हूँगा, पापाजी का ट्रांसफर चंदौसी हुआ था। हमारे पड़ोसी थे खान अंकल। उनकी दो बेटियां-ज़किया और सुबीता, उस शहर में मेरी सबसे पहली दोस्त। उनके दो बड़े भाई आमिर और नासिर भाई, मेरे भी।
दो साल बीत चुके थे, मुझे याद नहीं पड़ता मैं रात का खाना कभी अपने घर खाया हो। वहीं होमवर्क करते और सबा आंटी (उनकी अम्मी) उनके गांव से आया देसी घी, शहद और नरम रोटी हम तीनों को एक थाली में परोस देतीं। हम भी साथ खा पी के टुन्न रहते। ईद में तो सिवइयों के साथ साथ ईदी अंकल, आंटी, आमिर भाई सब से अलग अलग। तब शायद इसे “लव जिहाद” तो बिल्कुल नहीं कहते थे।
तब मुरादाबाद में दुर्गा पूजा हुआ करती थी। महीने भर पहले से तैयारी शुरू हो जाया करती थी..नहीं नहीं मेरी नहीं ज़किया और सुबीता की। मेरे माँ पापा मेरे साथ उनके लिए भी फ्रॉक और लहंगा लाते और वो दोनो हमारे साथ अष्टमी, नवमी देखने पूजा पंडाल जाते। गोरी लड़कियां लाल टमाटर से गाल किसी भी एंगल से मेरी रिश्तेदार, परिवार की नहीं लगतीं थीं और वो ध्यान से पूजा देखतीं, हाथ जोड़तीं, पुष्पांजलि भी देतीं उसी चाव से प्रसाद भी खाती, मेरे दोने से अंगूर बीन बीन के ले लेती। फिर टनाटन मस्ती करते। खान अंकल शतरंज के माहिर खिलाड़ी थे, सो उनके दोनों बेटे। वो ही मेरे शतरंज के पहले गुरु भी थे। और तो और.. मुझे अलिफ, बे, ते और उर्दू ज़ुबान नासिर भाई ने अपनी तख़्ती पे सिखाई थी पूरी गर्मियों की छुट्टी हम उर्दू लिखना, पढ़ना सीखते, ज़किया, सुबीता के साथ साथ। पर शायद वो “लव जिहाद” नहीं था।
1982, फिर एक दिन खान अंकल का तबादला, हमारा अलग होना। मेरी सबसे अच्छी दोस्त दोनो दूर.।
1996, कई सालों के सन्नाटे फिर एक दिन आमिर भाई आये थे। तब हम लखनऊ आ गए थे। मैं पोस्ट ग्रेजुएशन कर रहा था बनारस से। ज़किया और सुबीता की शादी का कार्ड ले कर..। दिल खुश हो गया था उस दिन। मैं शादी के 4 दिन पहले पहुँच गया था। मुलाकात फिर से “जूड़ी जो जो” और “ज़क्को चुटिया” से शुरू हुई, फिर शोएब और अनवर मियां (उनके होने वाले शौहर) से मुलाक़ात। क़सम से बहुत फ़ख्र महसूस हो रहा था ख़ुद पर और इस बेहद खास रिश्ते पर जिसमे तहज़ीब थी, इज़्ज़त थी, विश्वास था, सबसे बड़ा “प्यार” था, प्यार “वो” वाला नहीं, “पाकीज़गी” वाला… रिश्ता जो भी रहा हो पर “लव जिहाद” तो कतई नहीं था। उनका निकाह हुआ, साल भर बाद दोनों दुबई और कुवैत में सेटल हो गए.. उनके बच्चे हो गए।
एक बार हम सब फिर मिले।
सन 2000, मेरी शादी ज़किया, सुबीता उनके शौहर, बच्चे सब आये। वही “जूड़ी जो जो ” और “ज़क्कू चुटिया” से शुरू फिर उसी अपनेपन पर ख़त्म, आंखों में वही प्यार, सम्मान, इज़्ज़त। पर वो जो भी था पर “लव जिहाद” नहीं हो सकता।बस्स.उसके बाद आज भी उस “ज़क्कू चुटिया” को शिद्दत से मिस करता हूँ, फिर से मिलने की तम्मना रखता हूँ, शायद किसी मौके पर फिर मिल भी जाएं, विश्वास कीजिये अष्टमी, नवमी औ दशमी को आज भी मेरे वाट्सएप पर “हैप्पी दशहरा/ दीवाली” का जो पहला मैसेज गिरता है, वो उसी का होता है.अपनी बेटियों के नए लहंगे, फ्रॉक वाली फोटो के साथ..
क्या वो “लव जिहाद” था?
यहीं पूछता हूँ खुद से इन मैसेजों को पढ़ने के बाद।
जॉय की क़लम का जादू आज सिरहाने पर … दोहरा सुकून